क्या मनुस्मृति में प्रक्षेप हैं? (भाग 3)
डॉ० अम्बेडकर ने अपने ग्रन्थों में मनुस्मृति के लोकार्थ प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं उनमें बहुत सारे परस्परविरोधी विधान वाले हैं (द्रष्टव्य 'डॉ० अम्बेडकर के लेखन में परस्परविरोध' शीर्षक अध्याय ९)।
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लेखन कार्य पर अब तक आपको राष्ट्रीय और प्रान्तीय स्तर के नौ पुरस्कार/सम्मान प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें आर्यसमाज सांताक्रुज, मुम्बई में प्रदत 'मेघजी भाई आर्य साहित्य लेखक पुरस्कार' तथा श्री विक्रम प्रतिष्ठान (अमेरिका) द्वारा प्रदत्त 'वेदवागीश पुरस्कार' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ... Know More
- Apr 18 2022
(ए) डॉ० अम्बेडकर और प्रक्षेप
मैंने पहले दिखाया है कि डॉ० अम्बेडकर ने अपने ग्रन्थों में मनुस्मृति के लोकार्थ प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं उनमें बहुत सारे परस्परविरोधी विधान वाले हैं (द्रष्टव्य ‘डॉ० अम्बेडकर के लेखन में परस्परविरोध’ शीर्षक अध्याय ९)। आश्चर्य है कि फिर भी उन्होंने मनुस्मृति में परस्परविरोध नहीं माना। यदि वे मनुस्मृति में परस्पर – विरोध मान लेते तो उन्हें दो में से किसी एक शोक को प्रक्षिप्त मानना पड़ता। उस स्थिति में मनुस्मृति में प्रक्षेपों का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता। प्रक्षेपों की स्वीकृति से मनुस्मृति की विशुद्ध प्राचीन मान्यताएं स्पष्ट हो जातीं। तब न उग्र विरोध का अवसर आता और न विरोध का बवंडर उठता। किन्तु विडम्बना तो यह है कि डॉ० अम्बेडकर ने प्रक्षेपों के अस्तित्व की चर्चा भी नहीं की। प्रश्न उठता है कि क्या उन्हें प्रक्षेपों की पहचान नहीं हो पायी?
यह विश्वसनीय नहीं है कि उन्हें परस्परविरोधी प्रक्षेपों का ज्ञान न हो, क्योंकि उन्होंने तो वेद से लेकर पुराणों तक प्रायः सभी ग्रन्थों में प्रक्षेप के अस्तित्व को स्वीकार किया है और उन पर दीर्घ चर्चा की है। देखिए
(क) वेदों में प्रक्षेप मानना
‘पुरुष सूक्त के विश्रूषण से क्या निष्कर्ष निकलता है ? पुरुष सूक्त ऋग्वेद में एक क्षेपक है।” (अम्बेडकर वाड्मय, खंड १३, पृ० ११२)
‘ऐसा प्रतीत होता है कि वे दो मन्त्र (११ और १२) बाद में सूक्त के बीच जोड़ दिए गए। अतएव केवल पुरुष सूक्त ही बाद में नहीं जोड़ा गया, उसमें समय-समय पर और मन्त्र भी जुड़ते रहे। कुछ विद्वानों का तो यह भी मत है कि पुरुषसूक्त तो क्षेपक है ही, उसके कुछ मन्त्र और भी बाद में इसमें जोड़े गए।” (वही, खंड १३, पृ०१११)
वेदों में प्रक्षेप मानने की अवधारणा इस कारण गलत है क्योंकि बहुत प्राचीन काल से वेदव्याख्या ग्रन्थों में वेदों के एक-एक सूक्त, अनुवाक, पद और अक्षर की गणना की हुई है, जो लिपिबद्ध है। कुछ भी छेड़छाड़ होते ही उससे पता चल जायेगा। इसी प्रकार जटापाठ, घनपाठ आदि अनेक पाठों की पद्धति आविष्कृत है जिनसे वेदमन्त्रों का स्वरूप सुरक्षित बना हुआ है।
(ख) वाल्मीकीय रामायण में क्षेपक मानना
66 ‘महाभारत की तरह रामायण की कथा वस्तु में भी कालान्तर में क्षेपक जुड़ते गए।” (अंबेडकर वाड्मय, खंड ७, पृ० १२० तथा पृ० १३०)
(ग) महाभारत में क्षेपक मानना
व्यास के ‘जय’ नामक लघु काव्यग्रन्थ में ८,८०० से अधिक श्लोक नहीं थे। वैशम्पायन के ‘भारत’ में यह संख्या बढ़कर २४००० हो गई। सौति ने श्लोकों की संख्या में विस्तार किया और इस तरह महाभारत में श्लोकों की संख्या बढ़कर ९६,८३६ हो गई।’ (वही, खंड ७, पृ० १२७) (घ) गीता में क्षेपक मानना 46
“मूल भगवद्गीता में प्रथम क्षेपक उसी अंश का एक भाग है जिसमें कृष्ण को ईश्वर कहा गया है। दूसरा क्षेपक वह भाग है जहां उसमें पूर्व मीमांसा के सिद्धान्तों की पुष्टि के रूप में सांख्य और वेदान्तदर्शन का वर्णन है, जो उनमें पहले नहीं था। तीसरे क्षेपक में वे श्लोक आते हैं, जिनमें कृष्ण को ईश्वर के स्तर से परमेश्वर के स्तर पर पहुंचा दिया गया है।'(वही,खंड ७, पृ०२७५)
(ङ) पुराणों में क्षेपक मानना
‘ब्राह्मणों ने परम्परा से प्राप्त पुराणों में अनेक नए अध्याय जोड़ दिए, पुराने अध्यायों को बदलकर नए अध्याय लिख दिए और पुराने नामों से ही अध्याय रच दिये। इस तरह इस प्रक्रिया से कुछ पुराणों की पहले वाली सामग्री ज्यों की त्यों रही, कुछ की पहले वाली सामग्री लुप्त हो गई, कुछ मंक नई सामग्री जुड़ गई तो कुछ नई रचनाओं में ही परिवर्तित हो गए।” (वही खंड ७, पृ० १३३)
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि डॉ० अम्बेडकर प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रक्षेपों की स्थिति को समझते थे। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि उन्होंने जानबूझकर मनुस्मृति में प्रक्षेप नहीं माने।
अब यह नया प्रश्न उत्पन्न होता है कि उन्होंने जानबूझकर प्रक्षेप क्यों नहीं माने? उसमें क्या रहस्य हो सकता है?
इसका उत्तर कठोर अवश्य है, किन्तु है सत्य। उन्होंने मनुस्मृति में प्रक्षेप इस कारण स्वीकार नहीं किये क्योंकि उसके स्वीकार करने पर उनका ‘विरोध के लिए विरोध’ का आन्दोलन समाप्त हो जाता। वे दलितों के सामाजिक और राजनीतिक नेता के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहे थे। इसके लिए मनु और मनुस्मृति-विरोध का अस्त्र सफलता की गारंटी था। वे इसका किसी भी कीमत पर त्याग नहीं करना चाहते थे। मनु, मनुस्मृति और आर्य (हिन्दू) धर्म का विरोध दलितों का प्रिय विषय बन गया था क्योंकि दलित जन पौराणिक हिन्दू समुदाय के पक्षपातों और अत्याचारों से पीड़ित और क्रोधित थे। इसको सीढ़ी बनाकर डॉ० अम्बेडकर भविष्य की उचाइयों पर चढ़ते गये।
कुछ लोग यहां यह कह सकते हैं कि दलितों के हित के लिए ऐसा करना आवश्यक था। किन्तु यह कथन दूरदर्शितापूर्ण नहीं है। डॉ० अम्बेडकर का विरोध सकारात्मक कम, प्रतिशोधात्मक अधिक था। वह विरोध दलितों को उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में ले गया जिससे भारत में एक नये वर्गसंघर्ष की परिस्थिति की आशंका उत्पन्न हो गयी है। डॉ० अम्बेडकर अपने मन में हिन्दुओं के प्रति गहरी घृणा पाल चुके थे, हिन्दू धर्म को त्यागने का निश्चय कर चुके थे; अत: उन्होंने हिन्दू-दलित सौहार्द को बनाये रखने की चिन्ता की ही नहीं।
यह स्थिति भारतीय समाज और राष्ट्र के लिए हितकर न थी, न रहेगी।
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए डॉ० अम्बेडकर ने मनुस्मृति की यथार्थ साहित्यिक स्थिति को, तर्क को, प्रमाण को, परम्परा को, तथ्यों को, तटस्थ समीक्षा को, सत्य के अनुसन्धान के दावे को तिलांजलि दे डाली। उन्होंने विरोध करने के अतिरिक्त, सभी आपत्तियों-आरोपों के उत्तर देने के दायित्व से भी चुप्पी साध ली। उनके अनुयायियों ने उनका अनुकरण किया। आज भी स्थिति यह है कि उनके समर्थक या अनुयायी मनु और मनुस्मृति का विरोध तो करते हैं किन्तु किसी भी शंका का तर्क और प्रमाण से उत्तर नहीं देते। प्रक्षिप्त और मौलिक लोकों के अन्तर को वे समझना और मानना नहीं चाहते। सत्य-परिस्थिति से मुंह मोड़कर आज भी वे केवल ‘विरोध के लिए विरोध’ को अपना लक्ष्य मानकर चल रहे हैं।
सच्चाई यह है कि डॉ० अम्बेडकर सहित मनुस्मृति-विरोधी सभी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरूप से पायी जाती हैं। उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिद्ध करने वाले आपत्तिरहित लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सद्भावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सम्बद्ध होने के कारण मौलिक माना जाता है, को मान्य ही नहीं किया । केवल आपत्तिपूर्ण श्रोकों, जो कि प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, को मान्य करके निन्दा-आलोचना की है। उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही लेखक की पुस्तक में, एक ही प्रसंग में, स्पष्टतः परस्परविरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वतः मिल जाता। न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते (च) निष्कर्ष
मनुस्मृति में समय-समय पर कांट-छांट, परिवर्तन-परिवर्धन के प्रयास हुए हैं। फिर भी मनु की मूल भावना के द्योतक श्लोक यत्रतत्र संदर्भो में मिल जाते हैं। उनसे उनकी मौलिकता का ज्ञान हो जाता है।
संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्लोकों का निर्णय इस प्रकार है
१. मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ. अम्बेडकर ने भी पूर्व उद्धृत उद्धरणों में इसे स्वीकार किया है), अतः गुणकर्म योग्यता के सिद्धान्त पर अधारित जो श्लोक हैं वे मौलिक हैं। उनके विरुद्ध जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है।
मनु के समय जातियां नहीं बनी थीं। यही कारण है कि मनु ने वर्णों की उत्पत्ति के प्रसंग में जातियों की गणना नहीं की है। इस शैली और सिद्धान्त के आधार पर वर्णसंकरों से सम्बन्धित सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं और उनके आधार पर वर्णित जातियों का वर्णन भी प्रक्षिप्त है क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है।
२. इस पुस्तक में उद्धृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘सामान्य कानून’ है, मौलिक है; उसके विरुद्ध पक्षपातपूर्ण दण्डव्यवस्था-विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
३. इस पुस्तक में उद्धृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंचनीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
४. इस लेख में उद्धृत नारियों के सम्मान, स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा के विधायक श्लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक पढ़ा और समझा जाये और प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये। आदिविधिदाता राजर्षि मनु एवं आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं। भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण आदितम धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये।
#Ambedkar #Manusmritiक्या मनुस्मृति में प्रक्षेप हैं? (भाग 2)
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