यज्ञ और अग्निहोत्र के विषय में सामान्य विचार
यज्ञ शब्द देवपूजा, संगतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से नङ् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है। जिस कर्म में परमेश्वर का पूजन, विद्वानों का सत्कार, संगतिकरण (मेल) और हवि आदि का दान किया जाता है
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आचार्य डॉ० रामनाथ वेदालटार वैदिक साहित्य के ख्याति प्राप्त मर्मज्ञ विद्वान् हैं। शिक्षा गुरुकुल काग्डी विश्वविद्यालय हरिद्वार में हई। इसी संस्था में ३८ वर्ष वेद-वेदार, दर्शनशास्त्र, काव्यशास्त्र, संस्कृत साहित्य आदि विषयों के शिक्षक एवं संस्कृतविभागाध्यक्ष रहते हुए समय-समय पर आप कुलसचिव तथा आचार्य एवं उपकुलपति का कार्य भी करते रहे । ... Know More
- Apr 19 2022
यज्ञ शब्द देवपूजा, संगतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से नङ् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है। जिस कर्म में परमेश्वर का पूजन, विद्वानों का सत्कार, संगतिकरण (मेल) और हवि आदि का दान किया जाता है, उसे यज्ञ कहते हैं।1अग्नि और होत्र मिलकर अग्निहोत्र शब्द बनता है।2 जिस कर्म में श्रद्धापूर्वक निर्धारित विधि के अनुसार मन्त्रपाठसहित अग्नि में आहुति दी जाती है, उसका नाम अग्निहोत्र है।
अग्निहोत्र आवश्यक कर्त्तव्य
अग्निहोत्र वैदिक संस्कृति में प्रत्येक मनुष्य के लिए एक आवश्यक कर्तव्य है। शतपथ ब्राह्मण में एक कथा आती है. ब्रह्म ने सभी प्रजाओं को मृत्यु के लिए दे दिया, केवल ब्रह्मचारी को नहीं दिया। मृत्यु ब्रह्म से बोला कि ब्रह्मचारी में भी मेरा भाग होना चाहिए। ब्रह्म ने कहा कि जिस रात्रि ब्रह्मचारी अग्नि में समिधा न देगा, उस रात्रि उसमें तेरा भाग होगा। अतः जिस रात्रि ब्रह्मचारी समिदाधान नहीं करता, उस रात्रि मृत्यु उसकी आयु से कुछ अंश ले लेता है।3इस कथा से ब्राह्मणकार ने ब्रह्मचारी के लिए अग्निहोत्र की अनिवार्यता को ही बताया है। मनु ने भी ब्रह्मचारी के कर्त्तव्यों में अग्निहोत्र को विशेष स्थान दिया है।4 गृहस्थ आश्रम में पंच महायज्ञ प्रत्येक सद्गृहस्थ को करने होते हैं, जिनमें देवयज्ञ या अग्निहोत्र भी है।5 वानप्रस्थाश्रम में भी अग्निहोत्र नहीं छूटता।6 संन्यास आश्रम में यद्यपि भौतिक अग्निहोत्र की अनिवार्यता नहीं रहती, तथापि आत्मिक अग्निहोत्र संन्यासी को भी करना ही होता है।7
शतपथ में लिखा है कि अग्निहोत्रजरामर्य सत्र है, अर्थात् या तो शरीर के नितान्त जीर्ण और अशक्त हो जाने पर इससे छुटकारा मिलता है, या मृत्यु के उपरान्त।8 शतपथ में ही यह भी कहा है कि अन्य सब यज्ञ तो एक न एक दिन समाप्त हो जाते हैं, फिर उनकी कर्त्तव्यता नहीं रहती, किन्तु अग्निहोत्र कभी समाप्त नहीं होता। सायं अग्निहोत्र कर चुकने पर अग्निहोत्री की यह भावना होती है कि प्रात: फिर करूँगा, प्रातः अग्निहोत्र करके वह यह सोचता है कि सायं फिर करूँगा। इस प्रकार जो अग्निहोत्र को अन्त न होनेवाला मानकर करता है, वह अनन्त श्री और प्रजा वाला हो जाता है।9 शतपथ के ही एक कथानक के अनुसार प्रजापति ने प्रजाओं को उत्पन्न किया और अग्नि को भी। अग्नि उत्पन्न होते ही सबको जलाने लगी। यह देख सब उसे बुझाने लगे। तब वह पुरुष के पास आई और उसने यह समझौता किया कि मैं तुझी में प्रविष्ट हो जाती हूँ, तू मुझे उत्पन्न और धारण किया कर। जैसे तू इस लोक में मुझे उत्पन्न और धारण करेगा, वैसे ही मैं तुझे परलोक में उत्पन्न और धारण करूँगी। तदनुसार यजमान जब अग्न्याधान करता है, तब अग्नि को उत्पन्न और धारण करता है। अग्नि बदले में उसका परलोक सुधार देती है, अर्थात् उसे उच्च कुल मेंमनुष्य-योनि प्राप्त होती है, या वह मुक्त हो जाता है।10 इस कथानक में अग्निहोत्र को मनुष्य का आवश्यक कर्त्तव्य बताने के साथ-साथ अग्निहोत्र का फल भी बताया गया है।
वेदों के भी अनेक मन्त्र मनुष्य को अग्निहोत्र के लिए प्रेरित करते हुए अग्निहोत्र की अवश्यंकर्त्तव्यता की ओर इंगित करते हैं, यथा –
स्वाहा यज्ञं कृणोतन॥11
स्वाहापूर्वक यज्ञ करो।
यज्ञेन वर्धत जातवैदसम्॥12
यज्ञ से अग्नि को बढ़ाओ।
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्॥13
समिधा से अग्नि को पूजित करो, घृतों से उस अतिथि को जगाओ।
सुसमिद्धाय शोचिषै घृतं तीव्र जुहोतन॥14
सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो।
अग्निमिन्धीत मर्त्यः॥15
मनुष्य को चाहिए कि वह यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करे।
सम्यञ्चोऽग्निं संपर्यत॥16
सब मिलकर अग्निहोत्र करो।
महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखते हैं होम का करना अत्यावश्यक है।……आर्यवर-शिरोमणि महाशय ऋषि-महर्षि, राजे-महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे। जब तक होम करने का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था। अब भी प्रचार हो, तो वैसा ही हो जाता है।17
1) यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु, वादि यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् पा० ३.३.९० से नङ् प्रत्यय । इज्यते देवपूजनं सङ्गतिर्दानं च क्रियते यत्र स यज्ञः ।
2) अग्नये परमेश्वराय जलवायुशुद्धिकरणाय च होत्रं हवनं यस्मिन् कर्मणि क्रियते तद् अग्निहोत्रम्-पञ्चमहायज्ञविधि, यज्ञप्रकरण।
3) शत० ११.३.३.१
4) अग्नीन्धनं भैक्षचर्याम्। मनु० २.१०८
5) अग्निहोत्रं च जुहुयादाद्यन्ते धुनिशोः सदा। मनु० ४.२५
6) अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम्। मनु० ६.४ ३.
7) आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात्। मनु० ६.३८
8)एतद्वै जरामर्यं सत्त्रं यदग्निहोत्रं, जरया वा ह्येवास्मान्मुच्यते मृत्युना वा। श० ब्रा० १२.४.१.१
9) सम् एवान्ये यज्ञास्तिष्ठन्ते। अग्निहोत्रमेव न संतिष्ठते। अपि द्वादश संवत्सरम् अन्तवदेव। अथैतदेवाऽनन्तम्। सायं हि हुत्वा वेद प्रात)ष्यामीति, प्रातर्तुत्वा वेद पुनः सायं होष्यामीति। तदेतद् अनुपस्थितम् अग्निहोत्रम्। तस्यानुपस्थितिमनु अनुपस्थिता इमाः प्रजाः प्रजायन्ते। अनुपस्थितो ह वै श्रिया प्रजया प्रजायते य एवमेतद् अनुपस्थितमग्निहोत्रं वेद। श० ब्रा० २.३.१.१०
10) शत० २.३.३.१-२
11)ऋग्० १.१३.१२
12) यजु० ३.१
13) यजु० ३.२
14)ऋग्० २.२.१
15)साम० ८२
16)अथर्व० ३.३०.६
17) स० प्र० समु० ३, देव प्रकरण
#Agnihotra #Hawan #Yagyaक्या मनुस्मृति में प्रक्षेप हैं? (भाग 3)
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