पंडित गंगाप्रसाद (६ सितम्बर १८८१ - २९ अगस्त १९६८) एक आर्य समाजी लेखक और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे। वे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी और संस्कृत भाषाओं के प्रकांड पंडित थे। पंडित जी का प्रिय विषय दर्शन था। उन्हें १९३१ में 'आस्तिकवाद' ग्रन्थ पर 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' ने 'मंगलाप्रसाद पुरस्कार' प्रदान किया। उनके पुत्र स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती भी एक उल्लेखनीय आर्य समाजी, रसायनविद एवं लेखक थे। वे आर्य आक्रमण सिद्धान्त में भी विश्वास करते थे और उन्होंने भारत के विभाजन का विरोध किया। वे महात्मा गांधी के कट्टर अनुयायी थे।
शूद्रों में कुछ जातियाँ अस्पृश्य समझी जाने लगीं। उनको नगर से बाहर घर दिये गए। कुओं और तालाबों पर पानी भरने और मन्दिरों आदि पवित्र स्थानों में जाने से रोका गया। उनको अच्छे उद्योग करने की भी आज्ञा न दी गई। यह यत्न किया गया कि उनकी सन्तान कभी भी उभरने न पावे। यह मनु का अभिप्राय कदापि न था।
तो झूठ को ईश्वर की प्रसन्नता का बाधक मानना पड़ेगा कल्पित भय और झूठा लालच दिलाने वाले लोग स्वयं भी झूठ बोलते हैं। और दूसरों को झूठ बोलने की प्रेरणा करते हैं। कुरान शरीफ भी तो कहती है कि 'मिथ्या कल्पना सच्चाई के सामने काम नहीं आती।।
इस छोटे से प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है। प्रथम तो वेदप्रचार से क्या तात्पर्य है? दूसरे केन लोगों में प्रचार करना है? कोई ऐसी अमृतधारा नहीं जो सब रोगों और सब रोगियों पर लागू की जा सके।
श्री शंकर स्वामी के उच्च ग्रन्थों तथा उनके अनुयायियों के इतिहास से कहीं यह नहीं झलकता कि उनके समक्ष ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' जैसी कोई भावना रही हो। उन्होंने भारतीय सम्प्रदायों के विरुद्ध लोहा लिया।
स्वामी दयानन्द न ईश्वर थे, और न ईश्वर के अवतार, न ईश्वर के दूत (पैग़म्बर)। वे तो साधारण मनुष्य थे। साधारण शब्द को सुनकर चौंकिये मत। सोचिये ! साधारण शब्द का प्रयोग करके मैं न तो स्वामी दयानन्द की निन्दा करना चाहता हूँ न उनकी पूजनीयता में कमी।